ग़ज़ल - दर्द
ग़ज़ल - दर्द
एक मुद्दत गुजर गयी, अपनी पहचान हुये।
इतनी दिल-आज़ारी, की हम लहूलुहान हुये।
अश्कों का दर्द मेरे, तुम कभी समझ न पाये।
हम तेरी आह तक से, खासे परेशान हुये।
पलकें बिछाते आये हम, तेरे क़दमों के नीचे।
एक नज़र जो तूने देखा, भारी अहसान हुये।
कुछ ऐसे रखते हो तुम, हमें अपने साथ।
बिन जज्बात के जैसे, हम कोई सामान हुये।
तय था की होगी, बराबर की हिस्सेदारी।
खुशियाँ देकर ग़म रखे, हम बेईमान हुये।
जिसके ख्वाबों में खोकर, बिताते हैं जिंदगी।
दफ़न उसी के हाथों से, अपने अरमान हुये।
कुछ ऐसे चलते हैं, तेरी तल्खियों के खंजर।
दिल तो बस दिल है, रूह पर निशान हुये।
हजारों थीं हसरतें, माँगीं थीं कई मन्नतें।
देखे थे जो हसीं सपने, वो सब वीरान हुये।
अक्सर पूछता हूँ, 'विवेक' से एक सवाल।
अपने घर में ही तुम, क्यूँ मेहमान हुये।