ग़ाफ़िल
ग़ाफ़िल


कल जहां खड़ा था
वहीं खड़ा हूँ मैं।
बड़े लंबे सफर को
निकल पड़ा हूँ मैं।।
सोचता ज्यादा हूँ
बोलता कम हूँ मैं।
खुद से कहीं अकेला
पड़ गया हूँ मैं।।
खाली कोटर में खनकते
अन्न से विचारों के दाने और मैं
झन-झनाहट सी है मन मे।
और चिड़चिड़ा हो गया हूं मैं।।
धूप में भी रोशनी खोजती रही
मेरी आँखें और मैं।
सपाट रास्तों पे भी
इस कदर डरा-डरा सा हूँ मैं।।
सुना था दीवारें सरहदे बनाती हैं
खयालों से भी यूं ग़ाफ़िल हूँ मैं।
हो सकता है कई मुझसे भी होंगे
अभी तो यहां मैं हूँ और बस मैं।।