गाँव
गाँव
दुलराती थी अक्सर हमको, जहाँ नीम की छाँव ।
जग में सबसे सुंदर था वह, एक हमारा गाँव ।।
रिश्तों की धारा में सारे, लोग जहाँ बहते थे ।
प्रेम, शांति, सद्भाव नीति से, मिलकर सब रहते थे।
कभी जहाँ पावन थे सबसे, माँ-बापू के पाँव ।
सारे जग में...........।।
सूखी रोटी से मिलकर हम, स्वाद बना लेते थे ।
एक आम की कई फाँक कर, जश्न मना लेते थे ।
हार गया था लालच जिसके, सम्मुख सारे दाँव..
सारे जग में..............।।
घूँघट में लज्जा की मूरत, जहाँ रहा करती थी ।
नित्य नेह की निर्मल धारा, सतत बहा करती थी ।
देवों को भी नहीं सुलभ थी , जिस मंदिर की ठाँव .....
सारे जग में............।।
संस्कार के पुष्प मनोहर, जहाँ खिला करते थे ।
मोर, पपीहे, तोता, मैना , सहज मिला करते थे ।
जहाँ मुँडेरों से आती थी, कौवों की नित काँव।
सारे जग में.............।।