गाहे-बगाहे जब कभी…….
गाहे-बगाहे जब कभी…….
गाहे-बगाहे जब कभी, अंधियारी मन में भर जाती है,
तब कलम की रौशनाई, मन में रौशनी कर जाती है।
हर शब्द मन के कोने से, दर्द खुरच कर हटाता है,
हर शेर फिर मेरे मन का, साफ आईना बन जाती है।
गाहे-बगाहे जब कभी…….
छंद भावों का बन जाता है, सुर आहों का लग जाता है,
काफिये हौसले हो जाते हैं, इरादे अशरार हो जाते हैं।
चाहे-बिन चाहे जब कभी, फिक्र मन में घर कर जाती है,
तब कलम की रौशनाई, मन में बेफिक्री भर जाती है।
गाहे-बगाहे जब कभी…….
मेरे अंदर का मैं, और निखर कर पन्नों पर बिछ जाता हूँ,
हर हर्फ से में खुद ही, एक नया पंकज सा खिल जाता हूँ।
जाने-अनजाने जब कभी, कुढ़न मन में घर कर जाती है,
तब कलम की रौशनाई, मन में प्यारी खुशबू भर जाती है।
गाहे-बगाहे जब कभी…….
