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Mr. Akabar Pinjari

Abstract

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Mr. Akabar Pinjari

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एक नदी

एक नदी

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मैं निकली जहां से,

वह सफ़र सुहाना है,

बस आपको कुछ हादसों से,

रूबरू कराना है,


ना घबराओ मेरा मंज़र देखकर,

ज़माने से टकराने का।

बड़ा रोमांचक होता है,

सफ़र खुद को आज़माने का। 


शाखें टूटतीं हैं, पत्ते गिरते हैं,

पत्थर टकराते हैं,

कभी उछलती हूं, कभी पिघलती हूं,

कभी रास्तें बदल जाते हैं,


कभी गर्म बनकर, कभी सर्द बनकर,

कभी मर्ज़ बन जाती हूं,

कभी सरिता, कभी तटिनी,

तो कभी तरंगिणी कहलाती हूं।


आरंभ हुआ है मेरा जीवन,

यूं ही दुर्गम खानों में,

फिर भी अपना अस्तित्व बनाया,

मैंने इन चट्टानों में,


कल कल करती बहती हूं मैं,

यूं ही मधुर संगीत में,

मैंने चार चांद लगाए हैं,

इंसानियत की जीत में।


मेरे कारण ही तो मनुष्य,

इतना इतराता है,

बिजलीकरण, सिंचाई,

न जाने क्या-क्या पाता है,


मेरे कारण ही वह जलचर

पर हक जताता है,

बैठकर नैया में वह जीवन

का राग सुनाता है।


भेदभाव को छोड़कर मैं,

सब की प्यास बुझाती हूं,

जो जिस भेस में ना चाहे मुझको,

मैं वैसे बन जाती हूं,


रूप बदलकर हर किस्म में,

मैं वसुंधरा को ही सुंदर बनाती हूं,

आखिरकार यूं ही

बहते-बहुते एक दिन,

मैं सागर में मिल जाती हूं।


इतने से ही अंत न होकर,

मैं फिर से जन्म लेती हूं,

सूर्य की तपती किरणों से मैं,

वाष्प बनकर बादलों में समाती हूं,


फिर वर्षा रूप धारण करके,

धरती को मिल जाती हूं,

छोटी-छोटी बूंदों से मिलकर,

फिर से धारा बनाती हूं।


ऐ मनुष्य ! मेरे जैसा तू भी दानी हो जा,

थोड़ा दिल से निर्मल हो कर निर्मलता में खो जा,

भेदभाव का फ़र्क भूलकर जनसेवा बस जा,

इंसां को, प्रेमजल का मीठा सागर दे जा।


दिल से जितना तू पावन होगा,

तब हरियाली का सावन होगा,

मैं खुशियां लाऊंगी तुझ तक,

और तू खुशियों का आंगन होगा।


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