ऐसा ख़ुमार कहां देखा है
ऐसा ख़ुमार कहां देखा है
मेरी मुस्कुराती हुई आंखों के पीछे का झलकता समुंदर कहां देखा है,
उस दर्द के पुजारी ने मेरा ईमान कहां देखा है,
चलता रहा हूं मैं राह पर, बेपरवाह परवाने की तरह,
उसने आशिक-ए-मंजिल इशारा कहां देखा।
खौफ़ तो बहुत था, अपनी राह को चुनने में,
इत्तला भी ना किया कभी, हमने दर्द को चुनने में,
एक अलग ही मजा है जो भी है उसमें गुजारा करने में,
मासूम इस दिल के गुलशन ने, महकता गुलाब कहां देखा है।
चारमीनार पर चढ़ जाऊं,
या इंद्रधनुष से लड़ ज
ाऊं,
पंखों में भरकर उड़ान, उड़ तो लूंगा ही,
पर इस दिल के शहजादे ने, नया आसमान कहां देखा है।
शरीक हो पाए हम, तेरी खुशियों में गर कभी,
भूल कर सारे ग़म, आ गले लग जाए हम कभी,
इतराती अदाओं से, टकराती रही है फिजाएं भी हमेशा,
इस हमनशी वीरान पहाड़ियों ने, बहकता तूफ़ान कहां देखा है।
आओ ऐतबार कर लो अब हम पर,
आओ एक वफ़ा-ए-वार कर लो हम पर,
भूल चुके है हम भी अपनी ही काबिलियत,
इस रंगीले नटखट आशिक का, तुमने ख़ुमार कहां देखा है।