दूर-दूर तक इंसानियत का वास्ता
दूर-दूर तक इंसानियत का वास्ता
कल ही सोच रही थी कविता लिखूं
मासूम बचपन की,
अनेक कहानियां लिखूं
इंद्रधनुषी रंगों की,
आंगन में खेलती बच्चियों की,
सबको भैया, चाचा, मामा पुकारती
फूलों से कोमल मन की
मेरी ख्वाहिशें जग गईं
दब गईं
पढ़कर खबरें
आँखें भर गईं
फिर जहाँ से गुज़र रही थी
उधर कोई सुरक्षित रास्ता न था
दूर - दूर तक इंसानियत का कोई वास्ता न था
क्या होगा उस ममता का
जिसने अपनी सांसें खोई ?
नन्ही जान लुट गई, यह कोई हादसा न था
कुछ दिन विरोध,
कैंडल मार्च सुलह का रास्ता न था
न जाने कितने रंग बदले
अनगिनत मन टूटे
6 से 60 साल तक कोई रिश्तों का वास्ता न था ?
गुनाह बढ़ गए मगर न्याय का कोई रास्ता न था
न जाने कितने दरिंदे बैठे घर में पैर पसारे
हम औरतें घूंघट में घरों में बैठे उनकी लाज बचाएं
अब तो जागो नहीं तो खो जाएगी मासूमियत
दब जाएगी आवाज़ें
हर जगह बैठे दरिंदों के आगे
अब तो जागो !
अपने वजूद के वास्ते चुप्पी तोड़ो
वरना बेटी - बहू का कोई सुरक्षित रास्ता नहीं है
दूर - दूर तक इंसानियत का कोई वास्ता नहीं है !