दर्पण
दर्पण
मैंने ज़िन्दगी तुझको सच्चा न देखा
देखा जब भी दर्पण तो अच्छा न देखा।
समंदर में देखा कश्तियाँ फँसी है
ओ बेचैन राही किनारा न देखा।
धोखे में लगा सीप का एक मोती
तरीक़े से उसने दरिया न देखा।
कैसी भूल-भुलैया फँसी रह गई मैं
तेरे इश्क में आज क्या-क्या न देखा।
मैंने ख़त में गुलाब तुमको भेजा था
"नीतू" ने मेरे मन को महका न देखा।