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himangi sharma

Abstract

4.5  

himangi sharma

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नासमझ ही अच्छा था मैं

नासमझ ही अच्छा था मैं

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नासमझ ही अच्छा था मैं, 

जब से समझ आई है, जीना ही भूल गया हूं,

सवेरे उठता था कभी आशाएँ लेकर,

अब उन आशाओ के तले ही दबा हुआ हूं,


नासमझ ही अच्छा था मैं,

जब दो वक्त की रोटी भी बड़े चाव से खाता था,

अब तो चार वक्त की रोटी है, पर चाव कही गुम है,

जीवन की सुंदरता का कुछ इस कदर बखान था,


जब नासमझ था मैं तब हर किसी का सम्मान था,

अब नीरस सा हो गया हूं, खुद में खो गया हूं,

फिर भी खुद से अंजान हूं, मै इस सब से हैरान हूं,

सम्मान की परिभाषा में अब बहुत बदलाव है,

हर क्षण केवल होता पश्चाताप है,


नासमझ ही अच्छा था मैं, 

जब से समझ आयी है खामोश हो गया हूं।


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