दरमियां
दरमियां
ये शोर है कैसा,
इन आंखों के दरमियां ये अंधेरा छाया कैसा,।।
रात ये धुंधली हुई,
ये सुबह भी बेरंग हुई,
मेरी मुझसे दूरी आखिर कितनी गहरी है,
ये स्याही आखिर क्यूं बिखरी सी है,
कोई रख जाए अबीर इन हथेलियों की सतह पर,
कितने अरसे गुज़रे हैं उस सपने की प्रतीक्षा में,
क्या यही रीत है क्या यही धर्म है,
क्या यह बचपन में दी एक झूठी आस है,
एक शाम यूं ही बिताना चाहती हूं अपने ख्यालों में,
हर पल अर्पण कर देना चाहती हूं विचारों की माला पिरोने में,
कागज़ पर सर्वप्रथम लिख दूंगी टूटे कुछ वादे,
आहिस्ता आहिस्ता आज़ाद कर दूंगी पिंजरे में कैद वो परिंदे,
ख्वाहिश है मुट्ठी भर सम्मान की,
जो लिखनी है कहानी वो कहानी है मोह की,
मृदुल के स्पर्श से मोहित होते वत्स की,
इश्वर स्वरूप में प्रियतम के पूजन की,
व्याकुल मन के चित्रण की,
आसमान के प्रति धारा के आकर्षण की,
दामन पर छींटे लिए उड़ान भरती कोयल की,
अध्यात्म और रुद्र स्वरूप के मिलन की,।।