दर्द भरे अल्फाज़
दर्द भरे अल्फाज़
सब कुछ कहो मगर भूल कर भी
ये मत कहना कि भूल जाऊँ उसको
जिसकी हर अमिट याद को दी है पनाह
अपनी पलकों की शीतल छांव में
जिसके एहसासों को बसाया है
अपने दिल के महकते उपवन में
और तुम कहते हो कि भूल जाऊँ उसे
छोड़ दो बेशक साथ मेरा
ये दर्द भी सह लूंगी
रिश्तों के रेशमी धागों से
बना है जो सेतु हमारे दरमियान
तुम चाहो तो तोड़ दो, किसने रोका है तुमको
मगर ये जुर्म मुझसे न होगा
खुद को भूल कर उसे भूल जाऊँ
चाहा है जिसे ज़िन्दगी से भी ज्यादा
ये गुनाह भला कैसे कर सकती हूँ मैं
मुझे भूल कर नई दुनिया बसा लो
ये हक़ आज भी है तुम्हारा
मगर मैं भूल जाऊँ
अतीत के उन मधुर लम्हों को
जो बहती हैं मेरे कण-कण में
ये हक़ मैंने ख़ुद को भी दिया नहीं कभी
बस फिलहाल इतना ही कहना था
दर्द भरे अल्फाज़ तो और भी थे
इस ख़त में लिखने के लिए
मगर क्या करूं
अगर समझ सको तो यही काफ़ी है
मेरे हाल को समझने के लिए।