दहलीज
दहलीज


हुई न सदियों से जो पार ,
न जाने कैसी ये दहलीज !
कभी संस्कारों ने रोका तो ,
कभी मर्यादा बनी दहलीज !!
कई रीति रिवाज बने हैं ,
कई रूढ़ियां बांधे पाँव !
सपने आँखों में कैद कर ,
चलना है समाज की चाल !!
पार डोली से दहलीज होगी ,
पायेगी कोई नया संसार !
बेटी से बहु का सफर कर ,
अर्थी में फिर होगी दहलीज पार !!
युगों से बस परंपरा ये चली है,
लक्ष्मण रेखा न हो कभी पार!
हौसले हो चाहे उड़ान भरने के ,
पर न होगी कभी दहलीज पार !!