शब्द नहीं मैं भाव लिखती हूँ
शब्द नहीं मैं भाव लिखती हूँ
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तुम गुनगुना सको, मैं ऐसा राग रचती हूँ।
हर पंक्ति में अनोखा, अहसास रखती हूँ।
जाने अनजाने, कईं राज भी कहती हूँ।
शब्द नहीं शब्दों में, मैं भाव लिखती हूँ।
मैं अपनी भावनाओं को, रंगो में घोल।
कलम से नया, कोई इतिहास रचती हूँ।
काली नीली स्याही से, बेज़ान पन्नों पर।
रचना से नया, कोई कमाल करती हूँ।
गुण नहीं अभी, मुझमे कवियों से।
फिर भी मैं, कविता कहती हूँ।
तन लगे तो, पढ़ना इसे तुम।
मन बसे तो, गुनगुना लेना तुम।
शब्दों में मेरे भाव, अपने मिले तो कहना।
तुम गुनगुना सको, मैं ऐसा राग रचती हूँ।
शब्दों में मैं तुम्हारे भी,भाव लिखती हूँ।
कल्पना से अपने, अनुमान लिखती हूँ।
अनिष्ट का कभी, आगाज़ लिखती हूँ।
घटा अनजाना, अंजाम भी लिखती हूँ।
मौन से भयानक रसों को रचती हूँ।
हो जाए प्रबल, शब्द संरचना ऐसी मेरी।
बंद आँखें देख, अन्याय खुल जाए।
रहस्यमय कोई मैं, बात रखती हूँ।
शब्द नहीं शब्दों में, मैं भाव लिखती हूँ।