ढीला पड़ता पवित्र बन्धन
ढीला पड़ता पवित्र बन्धन
न जाने क्यों विवाह कहलाता बन्धन पवित्र,
होता है विवाह तब कहते हैं सब,
बन्ध गये हो आजीवन बन्धन में विवाह के।
चिर काल से ही रही नारी समर्पित,
इस पवित्र बन्धन के प्रति,
पुरुष……?????
कुछ रहे कुछ नहीं रहे समर्पित,
शायद नारी भी कोई-कोई न रही हो समर्पित।
हाँ, विवाह रहा सदा एक बन्धन,
सहती रही नारी मानसिक वेदना प्रति पल,
सही शारीरिक प्रताड़ना भी अनेकों ने,
दबा लेती चिंगारी विद्रोह की हृदय में,
परन्तु न करी हिम्मत कभी तोड़ने की,
सुन्दर और पवित्र बन्धन को,
थी भी तो नारी बेचारी,
न शिक्षा, न रोज़गार, पूर्णत: निर्भर पति पर,
विदाई पर कह देते मता-पिता,
“ है पति का घर ही तुम्हारा,
रही हो विदा यहाँ से तुम,
उठेगी अर्थी अब वहीं से तुम्हारी।”
आखिर कितना सहती नारी???
धीमे-धीमे होने लगा परिवर्तन विचारधारा में,
हृदय के भीतर दबी चिंगारी बदलने लगी,
आग में विद्रोह की।
देने लगे साथ माता-पिता भी,
लगी करने प्राप्त शिक्षा नारी, चाह में स्वावलम्बन की,
रही न आश्रित पति पर आज की स्वावालम्बी नारी,
न रह गई है अब नारी बेचारी,
न कर पाया है पुरुष सोच अपनी नई,
अत: होता है टकराव जब बीच नई और पुरानी सोच के,
तो पड़ने लगते है बन्धन पवित्र भी ढीले।
कभी आ जाता बीच में ‘इगो’ दोनों के,
करने ढीले बन्धन।
कभी पुरुष हो जाता शिकार हीन भावना का,
नारी होती यदि शिक्षित अधिक उससे,
फिर होने लगते बन्धन ढीले।
चाहते ‘स्पेस’ अपनी अपनी अलग,
आज की नारी और पुरुष,
न मिले यदि ‘स्पेस’ तो भी,
होने लगता बन्धन ढीला।
कारण हो सकते कुछ भी परन्तु है सच यही,
पड़ने लगा हैं आज यह पवित्र बन्धन ढीला ।।।