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Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy

"दारुण-करुण चित्कार"

"दारुण-करुण चित्कार"

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दारुण, करुण चित्कार मची है, भीतर

कैसे हो गये है, आजकल निकृष्ट नर

जो दर्दनाक गैंगरेप हुआ है, अलवर

मेरी तो रुह तक छलनी हुई, सुनकर


मनु भेष में छिपे हुए है, कुछ जानवर

फैला रहे है, जो पूरे समाज में जहर

दारुण, करुण, चित्कार मची है, भीतर

निर्भया दर्द सुन आंसू सूखे हुए पत्थर


कैसे-कैसे दरिंदे है, घूम रहे मनु बनकर

कैसे कोई बहिन, बेटी सुरक्षित रहेगी?

गर न काटा हमने बलात्कारियों का सर

छोड़ो न्याय मांगना मोमबत्ती जलाकर


सीधे मारो ऐसे दुष्टों को, नुकीले पत्थर

हर जगह लहूं निकले मरे, वो तड़पकर

तब जा न्याय मिलेगा निर्भया अलवर

काट दो ऐसे दुष्टों का सब मिल सर


जब फैलता जिस्म में जहां भी जहर

काट देते है, वो अंग, उसी क्षण प्रहर

ताकि जिंदा रहे हमारा शरीर रूपी घर

ऐसे मिटा दो, समाज से सब निशाचर


ताकि जिंदा रह जाये रोशनी का शहर

रेप जैसी घिनौनी हरकत कोई करे क्या?

सोचे भी गर, दे, मौत ऐसी रुह जाये डर

दारुण, करुण, चीत्कार मची है, भीतर


आत्मा रो उठी है, निर्भया दर्द सोचकर

उन्हें न करेगा माफ कभी कोई ईश्वर

पर वो भी दिखाये, थोड़ा कुदरत कहर

घिराये बिजली, जो बलात्कारी है, विषधर


पर साखी अब न आने वाला मुरलीधर

तू ही बचा लाज द्रोपदी की, दुशासन से

जो भी छिपे हुए है, समाज में निशाचर

वेश पहने मनु का, भीतर रखते जहर


मार लाठी पर लाठी तू उन विषधर पर

तभी उड़ेगा कोई पक्षी गगन में जी भर

जब न बचेगा कोई दैत्य, दुष्ट रूपी नर

तभी खिलेगा प्रश्नता पुष्प सुंदर भीतर



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