चुनरी पर कढ़ाई
चुनरी पर कढ़ाई
बेचैन हुई मैं बावरी बन गई,
रुत सावन सी थी मैं अब पतझड़ सी सूनी हो गई।
ख्वाहिशों की चुनरी पर आस के कढ़ाई कर दी है,
करके खुद को तबाह ये कैसी रुसवाई हमें मिली है,
कैसे हो पार ये गहरी मझधार,
सूझे ना राह कोई अब कैसे जाए हम उस पार।
बेचैन हुई मैं बावरी बन गई,
रुत सावन सी थी मैं अब पतझड़ सी सूनी हो गई।
सर सर बह रहा है एक मंज़र कही,
कुछ तो छूटा है बीती गली में कही,
मेरी गुस्ताखियों का अंजाम बन जा,
ता उम्र संभालूँ तू ऐसा एक सबक बन जा।
बेचैन हुई मैं बावरी बन गई,
रुत सावन सी थी मैं अब पतझड़ सी सूनी हो गई।
एक पल शरारत एक पल ख़ामोशी है,
ज़रा सी अठखेली फिर वही उदासी है,
पल भर को ही झूमी फिर पायल टूट गई है,
ना जाने इन चीखों में मैं चुप सी हो गई।
बेचैन हुई मैं बावरी बन गई,
रुत सावन सी थी मैं अब पतझड़ सी सूनी हो गई।
बे रंग होकर भी देखा,
हर रंग को आज़मा कर भी देखा,
उसे सजदों में भी ढूंढा,
उसे खुदा मान कर था पूजा।