चाहत
चाहत
उसने नई की चाह में
अपने कुटुंब को दाव पर लगा दिया ।
चाहत के इस खेल में
अपनी सुताओं व भार्या को घाव दे दिया ।
डूबकर नव लोचन में
अपने ही संस्कारों को जर-जर कर दिया ।
अग्रिम नववधू के प्रेम में
अपनी कुलवधू को अपमानित कर दिया ।
किसी की जुल्फों की छाँव में
अपने सात फेरों को भस्म कर दिया।
उलझ उसकी लटो में
अपना जीवन ही तमाम कर दिया ।
उर्वशी के प्रेम जाल में
अपने घरौंदे में क्लेश का बीज बो दिया ।
उसके कजरारे नैनों में
तनया के कलेजे का दर्द अनदेखा कर दिया ।
मंदाकिनी के मोह में
अपनों की मुस्कुराहट को छीन दफना दिया ।
उसके इश्क में
अपने ही नीड को पैरों तले रौंद दिया ।
उसकी बांहों के झूले में
बरसों के रिश्तों को झूले पे लटका दिया ।
उसका विश्वास जितने में
भार्या का विश्वास खंडित कर बिखेर दिया ।
मोहिनी की मीठी बातों में
अर्द्धांगिनी को अवांछित कथन सुना दिया ।
उसकी मदहोशी में
उस कोयल को अपने घर में घुसा दिया ।
उसकी गिरफ्त में
अपनी आत्मजाओं को बेघर कर दिया ।
उसके छलावे ने
मासूमों को मौसम के थपेड़ों ने दुर्गा बना दिया ।
पर उसने
अपने अंतर्मन को ऐसा क्या समझा दिया
कि नई की चाह में
जग की बरसों की रीत को तार-तार कर दिया ।