बस एक सवाल हूँ
बस एक सवाल हूँ
न मैं कोई कहानी हूँ ,
न मैं किसी कहानी का किरदार हूँ,
बस एक सवाल हूँ.... एक सवाल हूँ ...
सदियों से अपने उत्तर की आस में,
लकड़ी की तरह सुलग रही हूँ
जल जल कर कोयला तो बन गयी
राख बनने के इंतज़ार में हूँ
शायद लकड़ी ही तो थी
जो लड़की बन गयी हूँ
सोचती हूँ
क्या लड़की इंसान नहीं होती ?
फिर क्यों सुलगती है लकड़ी की तरह ?
लकड़ी ---जिसे पेड़ की डाली से छिटका के
आग में झोंक दिया जाता है
मुझे भी ममतामयी गोद से उठा कर
पटक दिया गया था एक सुलगते हुए आँगन में
जहाँ कहने को तो सभी अपने थे
पर थे बड़े ही पराये
उन परायों को अपना बनाने की चाह में
उनकी अमानतों को संजो संजो कर पाला
अपने रक्त की बूंदों से
वही रक्त की बूंदें ,
उस पराये आँगन की सुलगती आग में
और भी धधकती है मेरी रगों में
और पूछती हैं एक सवाल
क्या मेरी कोई कहानी है ?
या मैं किसी कहानी का किरदार हूँ
या फिर केवल एक सवाल ?
शायद यूँ ही सुलगती रहूँगी
कायनात के अंत तक
शायद इस सवाल का
उत्तर कभी भी न मिले कि …
क्यों सुलगती है लड़की ,
लकड़ी की तरह बेजुबान होकर ?
क्या वह इंसान नहीं होती ?
अगर इंसान होती ,
तो क्यों कत्ल होती निर्भया की तरह ?
क्यों सुलगती रहती लकड़ी की तरह?
अग्नि परीक्षा देती सीता की तरह.…
क्यों उसके अंग उघाड़ने की
कोशिश की जाती द्रौपदी की तरह,
और पथरीली हो जाती अहिल्या की तरह.…
ऐसे सैकड़ों सवाल उभरते हैं मेरे मन में
और मैं सुलगती हूँ लकड़ी की तरह
पूछती हूँ अपने आप से यही सवाल
कि क्या मेरी कोई कहानी है ?
या फिर मैं किसी कहानी का किरदार हूँ
या फिर केवल एक सवाल हूँ ?