यथार्थ के धरातल पर...
यथार्थ के धरातल पर...
जब मैं तुमको मिली थी
कैसी अल्हड़ थी? नादान सी
रेत के सपने बुनती थी रात भर,
लहरें आती थीं और चुरा ले जातीं थीं
अपने बहाव के साथ
पर जब तुम मिले, तो दिखाए ...
काँच के रंगीन सपने मुझे .
बड़े ही सुन्दर-सुहाने थे वो सपने,
जो मैंने तुम्हारे साथ देखे थे.
लेकिन पता नहीं था कि...
बड़े ही नाज़ुक होते हैं
ज़रा से झटके से टूट जाते हैं
और टूटने पर काँच की किरचें
चुभती हैं सीधे हृदय के अन्दर
लहूलुहान हो जाता है अंतस गहरे तक
काश! न दिखाए होते रंगीन सपने तुमने मुझे ,
वैसे ही अल्हड़-नादान सी बनी रहती मैं,
रेत के सपने बुनती रहती हर रात
पर तुमसे मिलने के बाद,
अब मैं नादान नहीं रही
अब बुनूँगी अपने सपने
यथार्थ के धरातल पर
वो सपने केवल मेरे ही होंगे
नहीं बाँटूंगी किसी के साथ
नहीं तुम्हारे साथ भी नहीं,
कभी नहीं ...
