बरगद की छाँव
बरगद की छाँव
तपती जेठ की दुपहरी,
दिखत न गाँव गिरांव।
राही व्याकुल हो रहा,
मिले कहीं से छाँव।
स्वेद चमकता शीश पर,
होंठ गए थे सूख।
धूप से जलते तन वदन,
लगी प्यास अरु भूख।
दूर एक पोखर दिखा,
जागी मन इक आस।
कदम अचानक रुक गए,
पहुँचे पोखर पास।
पानी को ही देखते,
छलक पड़े दोउ नैन।
हाथ पाँव के भीगते,
भागि गयौ बेचैन।
दो अंजलि जल पीयते,
मन उठी खुशी तरंग।
दामिनी जैसे चमकती,
चमक उठ्यौ सब अंग।
थोड़ी यदि छाया मिले,
बैठि करूँ जहां भोग।
क्षुधा शांत हो पेट की,
ऐसा हो कोई सुयोग।
नजर घुमाई पथिक जब,
पोखर के ही ठाँव।
उसे दिखाई पड़ गया,
वह बरगद की छाँव।
बरगद के छाया तले,
जब वह पहुंचा धाय।
खोलि पोटली भोग की,
शुरू कियौ वह खाय।
अब तो भोजन हो गया,
कर लूँ थोड़ा विश्राम।
वहीं भूमि पर सो गया,
दुपहर से भयौ शाम।
हे बरगद ! तुम बुजुर्ग सम,
रखते सबका ख्याल।
गहे तुम्हारी शरण जो,
करते उसे निहाल।
