बलात्कार
बलात्कार
(एक अनकही आह.... जो किसी ने नहीं सुनी)
एक वज्र गिरा फिर से कही,
फिर से किसी का सपना चकनाचूर हुआ,
फिर से ममता निसंतान हुई
प्रश्न यहीं हैं, यह हुआ तो आखिर
क्यूँ हुआ??
देखो! एक आत्मा चीख पुकार रही है,
सुनसान डगर पर देहातों के,
या मानवता अब मर गयी है यहाँ
आदमी वहशी बना, बिना जज्बातों के।।
क्या था, क्या होगा बस एक जिद्द ही तो थी,
और टूटे किसी के सपने सभी,
ज़बरदस्ती की आग में,
एक -एक सांस ने दम तोड़ा,
जब छोड़ा तो मुर्दा छोड़ा,
और खत्म हो गयी दुनिया कहीं।
केवल उसकी नहीं जो शिकार थी,
घर, परिवार, ममता, उम्मीदें और एक शख्स,
जिसकी कमी शायद ही कोई भर पाये,
सबका खून बहा था यहाँ।।
शर्म आती हैं आज मुझे
मानव को मानव कहने में,
एक आत्मा जब तड़प रही थी तब,
क्यों ज़मीर तुम्हारा ना जाग पाया,
देखने वाले भी दो लोग ही तो थे
एक जिसने यह नियति बनाई थी
दूसरा था वो जिसपर हैवानियत
छायी थी,
वो तो मशगूल था अपने कर्म में
तू बदल भी सकता था नियति अपनी,
तुझ से यही दुहाई थी,
हो अंत ऐसा, तो सुन ऐ रब
बेटी बनाना तू बंद करदें
जिससे घर की आबरू नीलाम ना हो,
अब कोई बेटी बदनाम ना हो।
खून होता है विश्वास का,
पतन होता है समाज का,
आत्मा अंदर तक कांप उठती है
जब होता हैं, बलात्कार किसी का
फिर बदनामी फैलाने वालों
उस दर्द को भला तुम क्या जानो
ये तो जानता वही है,
जिसने झेला है, अपने ऊपर आघातों को,
यह जानेगा वही जो झेलेगा,
अपने स्नेहपात्र के लिए,
मार कर अपने जज्बातों को।
आप कहते रहना, देखते रहना,
चुप रहना मूक दर्शक बन कर,
तब तक....
जब तक तबाही ना हो जाये
तुम्हारे घर में भी।।