भिखारी
भिखारी
गुजरते हुए, शहर के फुटपाथ से,
देखा मैने उसको,
वो बैठा था चुपचाप, सिर को झुकाये,
जैसे बहुत दिनों से, कलेवर ना बदला हो,
अभाव में था, लेकिन फिर भी शान्त चित्त,
शायद इस आस में भी नहीं था,
कि कोई उसे कुछ दे जाता।
एक रौनक सी थी, जैसे उसकी आँखों में
राह से गुज़रने वालो को, बड़े ध्यान से
देख रहा था वो,
कमाल का अवधान था,
इस शोरगुल के बीच भी
एक कोने में सिमट के बैठा
विचार मग्न सा था।
थोड़ी -थोड़ी देर में कोई आता,
सबके साथ उसकी झोली में भी
कुछ डाल जाता,
लेकिन फिर भी उसकी तंद्रा
क्षण भर को भंग न होती थी।
क्या जीवन होता हैं, इनका भी,
गुजर जाता है फुटपाथ के किनारे,
सपनों का तो इनको अहसास ही कहाँ
होता हैं।।
एक तरफ चलती है दुनियां
की शिकायतें,
दूसरी ओर इनकी जिंदगी
अभाव में भी, पलती है।
फिर भी चलता है, हार नहीं मानता
शहर के फुटपाथ पर पलने
वाला भिखारी।।