भय गहराते,बेगानेपन में
भय गहराते,बेगानेपन में
दावानल कयों ? हिमगिरि के नीरव वन में,
कोलाहल अब है, श्वेत कपोत के गगन में,
मसि में डूबी लेखनी हुई अब विचलन में,
हलाहल घुला क्योँ?अब इस नंदन वन में,
जब अन्तर्मन के कोलाहल बसे,चिंतन में,
तो ज्ञान की धार हो गई म्यान के कुंठन में।।1।।
मुक्ताहल ज्यों निकली सीप से,अनमन में,
पडी छाया जाने कब?पावन घर ऑगन में,
मुँह और मन में साॅस हुई जब दोगलेपन में,
यूॅ धरा की चीर काली हुई इसी बेगानेपन में,
नद के तर्जन से भय गहराते, एकाकीपन में,
फिर आओ श्याम सुरमयी शाम के ऑगन में।।2।।
