आबरू
आबरू
आबरू अब रोज़ हैवानों के हत्थे चढ़ रही है,
लोग गिरते जा रहे हैं बेहयाई बढ़ रही है!
नाख़ुदा ना देख पाये इक भंवर ऐसा बनाकर
लहर अपनी गलतियाँ कश्ती के मत्थे मढ़ रही है!
जल रही ज़िंदा चिता पर जिस्म पर तेज़ाब ओढ़े
हाल पर उसकी सितम भी एक कहानी गढ़ रही है!
जाने होगा उन चराग़ों का भी मुस्तकबिल भला क्या
आँधियाँ अब चाक के कच्चे दीयों तक बढ़ रही है!
इस क़दर दहशत में हैं सारे परिन्दे अब शजर के
चुपके हर माँ अपने बच्चों की पेशानी पढ़ रही है!
