भूमि का शृंगार तरु है
भूमि का शृंगार तरु है
भूमि का शृंगार तरु है
बरसों से एक निगाह
थोड़ी सी लापरवाह!
ढूँढ रही थी हमेशा
शीतल छाँव का गवाह।
कड़ी धूप का था साया
चाहे वे तरुवर छाया !
चलते ही पगडंडी पर
स्मरण उसे था यह आया।
ओ नन्हें ! मेरी बात ले मान
ना कर कभी तू इतना गुमान !
सूखे पेड़ को दे जा पानी
वर्ना नहीं बचे जिंदगानी।
आज वह बूढ़ा हो गया था
यौवन नशे में खो गया था !
प्रकृति से मुँह फेरके वह तो
कंकर राह में बो गया था।
सुप्त चेतना ने उसे जगाया
बूढ़े ने फिर जग को बताया !
पेड़ धरा की असली धरोहर
तरुवर ने ही विश्व सजाया।
पौधों को हम पानी दें
बचपन और जवानी दें।
भूमि का शृंगार तरु है
मिलकर नयी रवानी दें।