भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता
भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता
भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता,
ये रात अंधेरी है,
यहाँ कोई सवेरा नहीं होता !
लूटने चले है आबरू जो,
आबाद घरों को वीरान करने,
अपने ही ज़ेहन पे अपना पहरा नहीं होता !
मैं मजहबी कहलाता हूँ,
उनका मजहब से कोई वास्ता नहीं,
ये मेरा ही पहलू है जिसका कोई चेहरा नहीं होता !
कभी मंदिर, कभी मस्जिद,
यही आकर मसले रुकते रहे,
कैसा है ये जख्म जो कभी गहरा नहीं होता !
मेरा खुदा है ये,
या भगवान है तेरा
जो चीखें सुनकर भी बहरा नहीं होता !
सारे मसले हल हो जाते,
हैवान से सब इंसान बन जाते,
गर धर्म में सियासत का ढेरा नहीं होता !