भगत सिंह की चोले की अभिलाषा
भगत सिंह की चोले की अभिलाषा
था कहीं गुमसुम कोने में
भगत सिंह का चोला
हुआ तनिक गम्भीर आज
और क्रोध में बोला
जिस आज़ादी के ख़ातिर
वो वीर कभी झूला था
भारत को आराध्य मान,
वो ईश्वर को भी भुला था
किया न्योछावर सभी रिश्तों को
कैसे थे बलिदानी
असंख्य युवा के ख़ून को
गरमा सकती है कहानी
इंक़लाब के झंडे रख
कफ़न बाँध चलता था
गोरे के हर ज़ुल्म ज़ोर को
सदा हँसते ही सहता था
कैसे थे वो लोग और
कैसी थी अमर कहानी
लाहौरी चंदन ख़ुशबू में
छिपी है उनकी जवानी
तब बाँट दिया माँ का आँचल
और सिंधु का पानी
सात दशक के बाद भी,
आज है आज़ादी बेमानी
नहीं कोई अभिलाषा है,
म्यूज़ियम में मुझे सजाओ तुम
या भगत के जन्मदिन पर,
सुर नया कोई गाओ तुम
भारत भू पर जब भी कोई,
संकट नया मँडराता है
फड़कन होती है बाज़ू में
हर्ष से दिल भर जाता है
हूँ इंतज़ार में,
और एक अभिलाषा छुपी मेरे अंदर
जब ‘फिर’ भगत की टोली आए
शौक़ से मेरे दर पर...!
