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बेटी का जन्म

बेटी का जन्म

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दूर वह नन्ही आत्मा निहार रही थी,

अपने बेजान शरीर को,

दो आँसू टपके और एक आह निकल पड़ी।


एक सवाल करना चाहती थी कि,

ऐ ज़माने के ठेकेदार, मुझे दफ़नाने से,

किसकी गलती दफना रहे हो।


दोष किसका था, मेरा या मेरी माँ का,

या तुम्हारे शरीर के अंदर उस अंश का,

जो मेरी माँ के पेट में पल गया।


काश ज़िंदा होती, बोल पाती, तो पूछ ही लेती,

जो माँ इस दुनिया में ले आई थी तुझे,

क्या वह लड़की नहीं थी ?


जो उससे दफना दिया होता,

तो तेरा वजूद कहाँ होता ?


और पूछ लेती कि कुदरत की कायनात,

बदल सकते हो क्या ?

अपने अंदर का अंश मिटा सकते हो क्या ?


जाग जा इंसान, कुछ मंथन अपने से भी कर,

जो मिटाते रहोगे हमारा वजूद इसी तरह,

तो संसार किस भरोसे चलाएगा संस

ार रचने वाला।


हम हैं तो सृष्टि है, जो हम नहीं,

तो बगीचा पुराना हो जायेगा,

सूख जाएँगी पत्तियाँ, मुरझा जाएँगे फूल,

वीरानियाँ छा जाएँगी, किसकी होगी वह भूल।


जाग जा इंसान, हमें आने दो इस दुनिया में,

हम ही माँ, हम ही बहन, हम ही बेटी कहलायेंगे,

नयी कोपलें खिल जाने दो, नए चमन बस जाने दो,

हम ही संसार में हर ख़ुशी फहलाएँगे।


आज के " हम, तुम",

कल के "वह" हो जाओगे,

नयी दुनिया बसने दो,

तुम भी उस दुनिया में शांति पाओगे।


सृष्टि चलती है बेटियों से,

बेटे तो बस एक जरिया हैं,

बेटियाँ रहमत हैं ऊपर वाले की,

प्यार का इक दरिया हैं।


बह जाने दो इस दरिया को,

दायरे में रह जाने दो मर्यादाओं को,

यह सृष्टि का नियम है,

इससे न खेल, न खेल, न खेल...


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