शहर खींच रहा है गांव!
शहर खींच रहा है गांव!
शहरों की सड़कें तपती रहती, छालों से भरे रहते पांव
फिर भी न जाने क्यों तेजी से शहर खींच रहा है गांव
शहरों का पानी खारा है सारा और धूमिल हैं हवाएं
गुम है यहां फूलों की सुगंध, और घाटी की घटाएं
ऊंची ऊंची मीनारों ने कैद की है सूर्य की किरणें
भरी दोपहरी अंदर अंधेरा, चहों और ट्यूब लाइटें
ताल तलैया भर रहे हैं , मल्टीप्लेक्स का चलन है
दायरा बड़ रहा शहरों का, हो रहा गांव का दहन है
पर्वत जमींदोज़ हो रहे हैं,गति घटाओं की रोकेगा कौन
खेत,जंगल जब नष्ट होंगे, तो विपतियों से बचाएगा कौन
कितने सुंदर थे तालाब, झीलें, लहलहाते अपने गांव
जहां बिस्तर थी हरियाली और संगनी थी पेड़ों की छांव
क्या मानव जिंदा रहेगा, जब गांव सब लुट जायेंगे
यही समय है मंथन करो, बाद में सिर्फ पछताएंगे...
✍️ रतना कौल भारद्वाज ✍️
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