औरत की हिम्मत
औरत की हिम्मत
चुपचाप सब कुछ वो सहती रही
खुद का दुख खुद से ही कहती रही
कभी किसी का विरोध ना वो कर सकी
अपने संस्कार में बंधी वो जलती रही
हिम्मत नहीं थी उसमें उलझने की
हिम्मत नहीं थी उसमें लड़ने की
उसने भी साथ नहीं दिया क्या वो पराई थी
जिसके संग सात फेरे लेकर वो आई थी
फिर भी जुल्मों ने उसके सब्र को तोड़ दिया
आज हिम्मत कर उसने बोल दिया
तुम्हारी इतनी हिम्मत मुझसे जुबान लड़ाती हो
हां है हिम्मत क्या तुम मुझे कमाकर खिलाती हो
क्या समझते हो नौकरानी? मेरी अपनी भी पहचान है
मेरी इज्जत और मेरी हिम्मत ही मेरा स्वाभिमान है.