हम बने मुर्ख समझदार
हम बने मुर्ख समझदार
हम मुर्ख समझदार थे
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यूँ तो मन में उभरते हुए कुछ भाव थे,
कुछ बंद तो और कुछ खुले बाजार थे।
पर्दे की चादर में लिपटी रहीं पर्दानशीं,
कभी न कभी होते उनके खुले दीदार थे।
मोहब्बत की हवा कुछ इस कदर चली,
हम तो बारहा उनके इश्क में बीमार थे।
देखते रहे चुपके रहगुजर में आते जाते,
हरपल हरदम दर पर उनके पहरेदार थे।
हर बात में जिक्र उनका बार बार फ़िक्र,
नजर की गिरफ्त में हुए ज़ब तलबगार थे।
ना कभी की कोई दुनियादारी की परवाह,
कह लो कि सरेआम खुलेआम मददगार थे।
उनके इश्क़ में हम खोये कुछ इस तरह,
कि उतने ही मूर्ख बने जितने समझदार थे।
