औरत का दायरा
औरत का दायरा
औरत का दायरा आज बहुत बढ़ गया
नहीं सीमित वो अब केवल घर तक।
सुबह की भागदौड़ से करती मेहनत
पति के साथ मिलकर वो रात तक।
बच्चों की फरमाइशें पूरी करती
लगन व प्यार से उनकी मुस्कान तक।
घर व बाहर वो दोनों संभालती
अपनी कड़ी मेहनत से थकने तक।
सर्दी - गर्मी ना देख मशक्कत करती
वो खेत में फसलों के कटने तक।
हिसाब करने में दिमाग के घोड़े दौड़ाती
चिंतित रहती हिसाब ना मिलने तक।
घर - व्यापार - ऑफिस सब वो देखती
फिर कद्र क्यों नहीं की पुरुष ने अभी तक।
चारों तरफ औरत के नाम का डंका बजता
उसकी महिमा से पुरुष क्यों अनजान अभी तक।
शंका, अपमान, दुराचार करके सदैव सताता
क्यों पुरुष को विश्वास नहीं नारी पर अभी तक।
झूठे अभिमान की लौ में दहकता रहता
कितनी परीक्षाएं लेगा नारी की और कब तक।
हे पुरुष ! क्या तुम बन चुके हो राम अब तक
लेते रहोगे तुम सीता की अग्निपरीक्षा और कब तक।