तरसता मन
तरसता मन
तरस गया ये मन
मुट्ठी भर सुख को
टीस की लहरें फैलकर
हिला गई अंतर को।
जग ने उछाले कंकर
मन की गहराइयों में
पीड़ा की आहों से
हिलोरे उठी मन में।
रौरव सा पसर गया
मेरे मन आंगन में
अंगारों सी राख फैली
मेरे इस जीवन में।
स्नेह के सब बंधन टूटे
फैला विचारों का जंगल
तरस के रह गया मन
फैला सब तरफ कोलाहल।
मन के इस आकाश के
अब सभी बुझ गए तारे
कौन हमें संभाले ?
कौन दूर करें अंधेरे ?
सूने सूने पर्वतों से
टकराते है जब बादल
बरस जाती है ये आंखें
दुखों से भर जाता आंचल।
कामनाएं रह गई बाकी
सपने रह गए सब अधूरे
मन में फैली है विरानी
कैसे मिलेंगे ये किनारे ?
खाली हो गया जीवन
सूना है कोना-कोना
टूट कर बिखर जाएं तो
कोई दोष हमें ना देना।