जीवन - संध्या
जीवन - संध्या
जीवन - संध्या में बिन तुम्हारे अकेले रहते
मन भर - भर सा जाता है।
तुम्हारी कौतुहल भरी बातें सुनने को
मन तरस - तरस जाता है।
सर्दियों की धूप में आंगन में
तुम्हारा वो धूप सेकना
आंखों को बार-बार याद आता है।
पापड़, बड़िया सुखाते हुए
तुम्हारे कंगन का मीठा स्वर
कानों में खनक - खनक जाता है।
बार-बार चाय की मांग करने पर
तुम्हारा वो झूठे ही झिड़कना
अक्सर याद आ - आ जाता है।
तुम्हारे चेहरे की वो सुंदर
मुस्कुराहट देखने को
मन तरस - तरस जाता है।
दवा न लेने पर तुम्हारा
टोकना व तुम्हारी हिदायतों का
वो शब्द - शब्द याद आता है।
मेथी के पराठे या तुम्हारे बनाये वो
जायकेदार पकवानों का
स्वाद जीभ पर लरज - लरज जाता है।
बिन बात मुझसे
तुम्हारा वो झूठे ही लड़ना
बार-बार याद आता है।
तुम्हारे तुलसी पौधे के पास
दो घड़ी आंगन में बैठकर
मन तुम्हारी यादों में
घिर-घिर जाता है।
तुम ही बताओ बिन
तुम्हारे ये जीवन
संध्या अकेले कैसे बिताऊं ?
मन तुम्हारे साथ को
तरस - तरस जाता है।
तुम्हारे सिवा इस घड़ी में
साथी नहीं कोई अपना तुम भी
साथ नहीं अब तो तुम्हारी यादों में
मन भर - भर सा जाता है।