औरत और समाज
औरत और समाज
छीन लो मुझसे दुपट्टा मेरा
शर्म आँखो मे ना ज़ेहन मे तेरे !
सिर्फ इल्ज़ाम मुझ पे लगता है
दायरा कुछ नही चलन मे तेरे !
नोच लो, खाओ मुझे जब चाहो
हर बदन पर ग़लत ज़ेहन है तेरे !
घर से बाहर जो आज मै निकली
कपड़े तन पर लगे कफन हैं मेरे !
क्यों क़यामत से खौफ दिल खाये ?
सौ क़यामत दिखा वतन मे मेरे !
जितनी पाबंदी है ज़माने की
कैद मे रखा है ज़ेहन को मेरे !
अब शिकायत से कुछ ना बदलेगा
अब बग़ावत की लौ ज़ेहन मे मेरे...!