अर्ज किया है
अर्ज किया है
किस कदर ये वक्त कि नाफर्मानी है, खुद से तो खफा है बस जहन को सुकून कि तसल्ली देता है
क्यों नहीं सबक वफा की तालीम में शिर्कत हो।
धोखा तो इन्सानी फितरत है
काबिले तारीफ है वो उम्मीद जो कयामत से रुबरु होने तक जिन्दा है
किस कदर गरीब है कुछ लोग पास जिनके सिर्फ पैसा है और कुछ नहीं
गर पहचान करनी है अपनी हस्ती की ऊॅंचाई तो मालूम कर ले खुद कि गहराई
खुशी और गम तो बस जहन कि इजाद है; मय का तो एक बहाना है फकत जहन को होश में लाना है
कब जहन में बसी ये तस्वीर महफिल में रुबरु होगी; कब ये मसला दिखावे का बेनकाब होगा
हम तो गरम रेत में एक मुसाफिर है।
सुकून कि हरियाली से कोई शिकवा नहीं