अपने और सपनें
अपने और सपनें
काफी वक्त हुआ था किये उस से कोई बात,
हुई हैरानी जब बात हुई उस से कल रात,
बचपन की वो ना सहेली थी,
दोस्तों में वो ना अकेली थी,
होती थी उस से बहुत कम मुलाकात,
रिश्ता फिर भी था हमारा कुछ खास,
दोस्ती की यादें भी मेरे पास नहीं,
दोबारा मुलाकात हो ऐसी भी आस नहीं ।।
फिर भी जाने क्यूँ था अजब सा नाता अपना,
सांझा करती थी मुझ से वो अपना हर सपना,
खूब मेहनत कर वो कुछ बन जाना चाहती थी,
रंग बिरंगी दुनिया को अपने रंग दिखलानी चाहती थी,
पंछी बनकर भरना चाहती थी ऐसी उड़ान,
जो देती उसे एक अलग शौकत और शान,
सोचा था कि वो एक बड़ी अफसर बनेगी,
अपने हर एक सपने के लिए लड़ेगी,
सारे बंधनों को कर वो अस्वीकार ,
वो भी एक मर्दानी बनेगी ।।
पर छोड़ सब उसने बाँधा एक खूंटा,
जिस से उसका हर ख्वाब था टूटा,
अपनों ने किए उसके हर ख़्वाब पराये,
हर क़दम के आगे जिम्मेवारी आये ,
आख़िर क्यों उस पर ये आफ़त आई,
अपनों औऱ सपनों ने लड़ी लड़ाई,
सपनों ने दी जहाँ अपनी कुर्बानी,
अपनों ने की अपनी मनमानी।।
क्यों अपने ही साथ नही निभातें हैं,
क्यों रिश्तों के ग़लत फायदे उठाते हैं,
क्या नहीं था कोई ऐसा विकल्प,
जो पूरा कर पाता उसका हर संकल्प,
अपने ही उसकी ताक़त बन जाते,
उसे उसकी मंज़िल तक पहुँचाते,
क्यों आती नही सभी को अपनी जिम्मेवारी निभानी,
क्यों हर वक़्त नारी ही देती है कुर्बानी।।
