अंतर्द्वंद्व
अंतर्द्वंद्व
नित अंतर्द्वंद्व में हम जी रहे हैं,
नहीं विष और तो क्या पी रहे हैं,
ना जाने कौन सी वह रश्मि होगी,
हमारी विजय जो निश्चित करेंगी;
या यूंही हारते ही जाएंगे हम,
स्वयं को रोज छलते जाएंगे हम;
विभाओं विजय का पैगाम तो दो,
ना अब संघर्ष जीवन चाहता है,
ये मन विश्राम ही अब मांगता है।।
ये मन विश्राम ही अब मांगता है।।
