अनोखी आत्मकथा
अनोखी आत्मकथा
आज फिर बात हुई है खुद से,
रो रही थी मैं जब कमरे में दुख से,
कुछ लोग उठाए सवाल फिर मुझपर,
बेजुबान हो गई मैं यह दृश्य देखकर,
क्यों लोग मुझसे वो उम्मीद करते हैं?
हम जिसमें असहज महसूस करते हैं,
लड़का हो लड़का बन कर रहो,
औरत की टोली से तुम दूर ही रहो,
ऐसे सवाल मुझे हर पल कोसते हैं,
हर दिन क्यों सब यही मुझसे पूछते हैं?
स्त्रीत्व भाव है जन्म से ही मुझमें,
ईश्वर ने बनाया है एक औरत को मेरे जिस्म में,
जानती हूँ आप हँसेंगे यह सुनकर,
जो भी कहना है कह दीजिए,
मैं माफ करूंगी आपको अपना समझकर,
लेकिन मुझे भी तो कष्ट होता है,
मेरे आँखों से भी आँसू गिरता है,
स्त्रीत्व भाव को कैसे खत्म करूँ?
क्या इसके चलते मैं खुद को ही नष्ट करूँ!
थक चुकी हूँ मर्द बनने का नाटक करके,
हर पल हारती हूँ इस जीवन के संघर्ष में,
मैं किससे पूछूँ मैं ऐसी क्यों हूँ?
किस मंदिर में जाकर अपना सवाल रखूँ!
मेरी मर्जी पूछेंगे आप?
तो सुनिए मेरा जवाब!
हाँ स्त्री हूँ मैं और कल भी स्त्री ही थी,
जन्म से अंत तक ऐसी ही रहूँगी,
नहीं बदल सकती मैं किसी के लिए,
परिणाम चाहे कुछ भी हो मेरे लिए,
लड़की जैसे नहीं करती हूँ मैं,
लड़की हूँ इसीलिए ऐसा करती हूँ मैं,
बीमारी नहीं है यह कोई,
कुदरत का करिश्मा है मेरे अंदर,
जिस्म और आत्मा का अंतर है यह,
कहलाता 'जेंडर डिस्फोरिया' है यह।