अनकही चाह
अनकही चाह
पुष्प चाहते हैं जीवन में, कभी नहीं हम मुरझाये।
पेड़ चाहते हैं भूले से भी, कभी पतझड़ न आये।
नदियां यही सोचती हैं, की सागर में वो मिल जाएँ।
मछली यही सोचती है कभी, जल से साथ न छूट जाये।
बादल यही सोचते हैं, हर माह ही भादों बन जाये।
ऊँची उड़ती हुयी पतंगे, सोच रही नभ छू जाये।
दलदल की है सोच की कोई, आकर मुझ में फंस जाये।
कांटे की अभिलाषा है, निर्दोष पथिक को चुभ जाये।
तारों की चाह यही है, काश चन्द्रमा छिप जाये।
सूरज चाहता है की दिन, कभी नहीं ढलने पाए।
नभ की चाह यही है की मैं, और भी विस्तृत हो जाऊँ।
पृथ्वी यही चाहती है हर, जान का भर में सह पाऊँ।
सबकी इच्छा इस जग में, पूरी न कभी हो पाती है।
कुछ मुकाम को पाते हैं, कुछ से मंजिल खो जाती है।