अनजान रिश्ते
अनजान रिश्ते
मुलाक़ात तेरी कुछ बेनाम सी थी ,
सिसकती जो मैं खुद के अरमां पर रही,
थाम मेरा हाथ जो तूने दिल पर अपने रखा था,
नजरें तुझ पर से हट ना रहीं थी।
मोहब्बत नहीं थी मैं तेरी,
ना दोस्ती का हो पाया था रिश्ता।
चाहत थी करीब आने की एक दूजे के,
और बीच में थी ये समाज की खींची रेखा।
तुने पल पल मुझको समझाया था,
ज़रूरत पड़ने पर अपना हाथ बढ़ाया था।
तेरा रिश्ता मेरे संग कोई ना समझ पाया था ,
ये रिश्ता था बेनाम आख़िर
अजनबी से इस कद्र रिश्ता जो बनाया था।
