अनजान डगर
अनजान डगर




अनजान थी डगर,
ना ठिकाना था पता ना गलियों की थी ख़बर,
सूखी ज़मीन पर धूल उड़ाता,
कभी चुप कभी बे वजह खुद से था बतलाता,
कभी राजा कभी रंक खुद को था बताता,
पल में अश्रु थे आंखों में कुछ क्षण में था वो मुस्कुराता,
बे असर हर दवा हो रही थी,
उसकी आशा भी उसका साथ छोड़ चुकी थी,
एक द्वंद्व के मैदान में वो अकेला उतरा है,
इस ओर वो है उस ओर अंधेरा है,
घुटनों पर अपने वो था,
हथेली में उसकी अभी भी कुछ बाकी था,
छांव छांव वो चलता चला,
अपनी बंद मुट्ठी में खुद को समेटे चला,
भोर की पहली किरण से दो बातें करता,
ढलती शाम में पंछियों के सुर के साथ सुर मिलता,
इस डगर पर था,
पर अब ओझल हो चुका था,
पंछी के गीतों में आज भी वो था,
ना जाने किस डगर मुड़ गया था,
उस मुसाफिर का कटोरा यहीं था,
पर पानी सूख चुका था,
इस डगर पर उसके पैरो के बस छाप मिलेंगे,
इस सफ़र में ना जाने कितने होश कितने मदहोश मिलेंगे।