लकीरों का लुभावना संसार
लकीरों का लुभावना संसार
एक वक्त था, जब बहुत ही लुभाता था,
लकीरों का मायाजाल।
कितनी उत्कंठा होती थी,
इन लकीरों को पढ़ने की।
पर मन कहां समझ पाता था,
इन लकीरों की भाषा।
आड़ी-तिरछी रेखाओं में,
न जाने विधाता ने कहांं
छुपाई जीवन की डोर।
कौन है जो कर्मों को
इन रेखाओं में उलझा रहा ?
पर कुछ तो है
समझ से परे।
जितनी भी सुलझा लो,
जिंदगी की कशमकश,
फिर भी जीवन इन
लकीरों के भंवरलाल में क्यूूं फंसता जा रहा ?
बचपन में सखियों का दोनों हथेेलियों को
जोड़कर लकीरों को चाँद का आकार देना।
फिर इक-दूूूजे को छेड़ जाना।
कितनी मासूमियत थी उन बातोंं मेंं,
सच्चाई से परे;
पर तुुम हो न,
बिल्कुल चाँद की तरह,
जीवन के हर मोड़ पर
तुुम बने रहे ...हाथों की लकीरों में।
उम्र के इस पड़ाव पर,
जब घिसने लगी हैं लकीरें,
तब भी तुम जस के तस मौजूद हो,
इन लकीरों में;
बस,लकीरों में।
हर पल सोचती हूं
तुम दिख जाओगे,मिल जाओगे किसी मोड़ पर
या किसी अनजान राहों में,
पर मिलते हो सिर्फ
इन्हीं आड़ी-तिरछी
लकीरों मेें,
सिर्फ
मिट रही
हाथों की लकीरों में।