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Learning Era

Drama

4  

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विवाहित विधवा

विवाहित विधवा

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द्रुपदसुता हूँ मैं कदाचित 

यही अभाग्य है मेरा, 

याज्ञ्नसेन की पुत्री को 

जीवन-ज्वाला ने घेरा।


मै बुरी नहीं हूँ इतनी भी 

कि घृणा करे मुझसे समाज, 

बस परिस्थिति प्रतिकूल हुई

तो बिगड़ गए सब मेरे काज।


क्यों लक्ष्य से जन्म हुआ मेरा

और अर्जुन पति मिला मुझको, 

क्यों धोखे से मुझे बाँट लिया

पांचाली नाम दिया मुझको।


ये माथे का सिंदूर बना था 

सर्प-विष का प्याला, 

ये पैरो की पायल बनी

बेड़ियां, लगाया ताला।


ये गले का मंगलसूत्र 

बना फंदे का नया स्वरूप,

चेहरे कि लालिमा उड़ गई 

तो व्यक्तित्व बना कुरूप।


पर सावित्री के सत ने

स्त्रियों को कहाँ छोड़ा था, 

मैने भी पतियों के प्रति खुद 

अपने मन को जोड़ा था।


स्वीकार किया दुर्भाग्य 

जीवन-चक्र ज्यों ही चला, 

त्यों ही नज़र लगाई सबने

पाण्डवों को सुख कहाँ भला।


फिर कौरवों ने चली चाल

पति मूर्ख मेरे बन गए शिकार, 

कौड़ियों के खेल में हार आए

स्वयं जीवन संसार।


पाँच पतियों की सहमूर्खता से

दुर्योधन का साहस बढ़ा,

भ्राताश्री का जटिल अनुज 

दुशासन मेरी ओर बढ़ा।


उसने केश पकड़ खींचा मुझको 

घसीटा, ले गया संग, 

भरी सभा मे प्रणय निवेदन से

मेरी मर्यादा की भंग।


जब दरबार में उछली लाज 

तो अश्रु स्वत: आँख से अलग हुए,

दास बने पति मेरे ,मूर्ख थे 

और अब मूक हुए।


जब खींची गई मेरी साड़ी 

और चीरे मेरे चीर, 

पाँच पति से शून्य हुए

 केशव ने हरि मेरी भीर।


जीवित अवस्था में पाँचों ने 

बना दिया मुझे विधवा,

 मन ही मन मैं टूट गई 

टूटा था चौथ का करवा।


यदि पति जीवित होता मेरा 

तो आँचल न बिखरता मेरा,

देता रक्षा का वचन मुझे 

और प्रेम मिलता भतेरा।


पति पाँच चल बसे मेरे 

जीवन बना दुख-जंजाल,

कोसूँ खुद को, मृत्यु को तरसूँ

पर प्राण नहीं लेता महाकाल।


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