अकाट्य सत्य से साक्षात्कार
अकाट्य सत्य से साक्षात्कार
हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं,
अपने विचारों,
लेखों को,
लिखकर,
किताबों की शक्ल में उसे ढाल देते हैं !
दुनिया में कोई बड़ा नहीं,
कोई छोटा नहीं,
रंग-भेद को,
एक जघन्य अपराध बताते हैं !
गाँवों की तश्वीर,
वहाँ की संस्कृति,
सभ्यता,
लोक-गीत,
सादगी के गुणगान से मन अघाता नहीं है !
यह बातें सारी लेखनी में,
सिमट कर रह जाती है !
बात जब व्यवहार की हो,
तब हमारी पोल खुल जाती है !
धरातल की बातें,
कुछ और है,
अपने लोगों से कतराते हैं !
उनकी वेश-भूषा,
रहन-सहन,
खा -पान, बातचीत से मुहँ मोड़ लेते हैं !
डर लगने लगता है ...
हमारा अतीत ...
तो सामने नहीं आ जायेगा ......?
और कहीं हमारे ,
'नाटकीय जीवन' को
तहस-नहस तो नहीं कर जायेगा........ ??
इसी क्रम में ,
हम अपनों से दूर चले जाते हैं !
समाज और अपने लोगों से,
मिलने से कतराते हैं !
हमें इन गलतिओं,
का एहसास,
तब होता है !
जब हम सब लोंगों से ,
अलग-थलग पड़ जाते हैं,
अपने को 'वीरान मरुस्थल में
स्वाति बूंदों' के लिए तरसते हैं !