अज़ीज़ प्यार
अज़ीज़ प्यार


आज भी मैं सपनों से यूं ही जाग जाती हूँ
तुझे ख़ुद के इतना क़रीब जो पाती हूँ
सच है या साज़िश मन की
उठकर बस तुझे ढूँढने जाती हूँ
न मिलने पर अंधेरे में अपने आँसू छिपाती हूँ
परेशान हू उस लमहे से जब से दूर गई थी
मेरे जाने का अफ़सोस शायद अब मैं ही करती हूँ
मेरी रूसवाई में ख़ून का फ़र्ज़ अदा था
मैं ज़िद थी या प्यार मुझे भी नहीं पता था
हाफ़िज़ जो थे उनकी हाफ़िज़ बनी थी
पता नहीं गुनाह पहले किया था या अब करने चली थी
तनहाई में सहारा तुझे बनाती हूँ
तू नहीं है अब क़रीब अशको से छिपाती हूँ
भ्रम ही सही सच्चाई से प्यारा लगता है
मुझे मेरा तन्हाई में रोना भी गवारा लगता है
कुछ पल ही सही सब भूल जाती हूँ
तुझे सबसे क़रीब जो पाती हूँ
अशको में छिपा है तू ये ख़ुद को जताती हूँ
उनके आने पे तू आयेगा इसलिए यूँ ही रूठ ज़ाया करती हूँ!