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Khushbu Tomar

Abstract

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Khushbu Tomar

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सिर्फ़ उसकी नहीं

सिर्फ़ उसकी नहीं

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क्या ख़ता थी उसकी, खुल के जीना

या उड़ते परिंदों को पकड़ना 

या माँ पापा का सर ऊँचा करना

भरोसा करना या मदद की आस रखना

और लड़ते लड़ते आँख मूँद लेना


वक़्त को बेवकत का ताज पहना देना

इस देश को आता है सिर्फ़ दलीलें देना

ख़ुद की कमजोरी बहाने देकर छिपाना

लाज नहीं आती लज्जा का खेल खेलते

गिरकर इतना,कैसे खड़े हो सीना चौड़ा करके


काश एक चिंगारी तुमको भी छू जाती

न न दम नहीं साँस नहीं सिर्फ़

तुम्हारी ज़रा सी चमड़ी ले जाती

तड़प का हल्का सा इल्म करा जाती

काश उस आग को महसूस करता

देश का आला अफ़सर

काश उस आग को बुझाने भेड़ियों को

सौंप देता जनता के दर पर


वो हमें नहीं देश का क़ानून हमें डरा रहा

चंद लमहों के फ़ैसले को सालों में निपटा रहा

जब उन चंद लमहों को तुम न रोक सके

उस दर्द उस सिहरन उस चीख़ को तुम न सुन सके

तो कैसे फ़ैसला दे रहे अरे चलो माना दे भी रहे

तो कम से कम चंद लमहों में ख़ुशनुमा ज़िंदगी को

दहलाने वालों को क्यू बख़्श रहे


कुछ तो एसा कर गुजरो कि हमें डर न लगे

हम भी उड़ना चाहे और हमारे पंख न कटे

वक़्त बेवक्त का ख़ेयाल न आए

लड़की लड़के का सवाल न आए


कश्मीर पा लेना मंदिर बना लेना गर यही जीत है

तो नहीं चाहिए एसी जीत जहाँ

पूजनी चाहिए जो देवी

वो सड़क की राख और जिसे

इंसाफ़ भी न मिले ये उसकी तक़दीर है

अरे जाति पे लड़ने वालों क्या

हिन्दू क्या मुस्लिम दर्द तो दर्द है

महसूस करो तब लगेगा

ये क़ानून बड़ा अंधा बेदर्द है।


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