उम्र के फासले
उम्र के फासले
दिल कितना मजबूर होता है जब सामने
ख़ुद से उम्र में बड़ा शख़्स खड़ा होता है।
जब वो अपने किताबों के गणित से
ज़िंदगी के गणित को समझाना चाहता है
और हम जीवन की बायो के
परेकटिकल को बोल तक नहीं पाते।
दिल हँसना चाहता है पर
मजबूर है ग़ुस्से में बस रोना ही आता है
उनके लिए उनकी दलीलें लकीर हो जाती है
और जो मिटाना चाहो उन लकीरों को तो
आप कुसंसकारित बेकार कहलाती है।
समझाना चाहते हो पर उनके
आगे छोटे पड़ जाते हो
क़ायदे की सीमाओं को न लाँघ पाते हो
प्यार है पर ग़ुस्सा हो जाते हो
मजबूर होकर बस रो ही पाते हो।
और जब बोलना ही चाहते हो
कि लेशन ही ख़त्म हो जाता है
आप गुनहगार सोच ख़ुद को कोसते जाते हो
अपने दिल की खता बताने को
आस से जब कंधा ढूँढने जाते हो,
तो जनाब वहाँ से भी समझाइश
नसीहत पा मन में घुटते जाते हो
और उस दिन आप संकोच
गिल्ट में बस पछताते हो।
न न ग़लती कुछ भी नहीं
बस कुछ न कहने की होती है
अपनी ज़िंदगी अपने लिए
जीने की सोच होती है
तुमको बग़ावत का तमग़ा पहनाकर
सब अपने बेगाने हो जाते हैं।
बस सब वही ख़त्म सोचकर हम चुप रह जाते हैं
आपकी समझ उनको नासमझी लगेगी
और उनकी समझ बीरबल की तरकीब होगी
बस यही उम्र का फ़ासला होता है।
ज़िंदगी के सारे परेकटिकल
एक चुप रहो के आगे थयोरी बन जाते है
बस दिल तो मजबूर होता है।
