ऐसे-वैसे लोग
ऐसे-वैसे लोग
लोग फेसबुक, व्हाट्सएप पे फोटो लगाते ऐसे
जंगल से छूटे हो, वो लोग तो अभी-अभी जैसे
इंसानियत के गुण भूल गये वो आजकल ऐसे
अंधेरे में डूब जाते है, जैसे कोई उजाले के रेशे
ट्विटर, इंस्टाग्राम, मैसेंजर चलाते है, लोग ऐसे
वनमानुष से इंसान बने है, अभी-अभी वो जैसे
अपनी तहज़ीब, मर्यादा लोग भूल गये है, ऐसे
कोई अपने शरीर के कपड़े बदलता है, जैसे
लोगों की जिंदादिली के लूट गये है, आज पैसे
न संभल रहे है, फिर भी वो पतझड़ बसंत जैसे
हाय धन, हाय भूख में मिटा रहे है, उम्र ऐसे
साथ में ले जाएंगे वो करोड़ों की पूंजी जैसे
आधुनिकता में तोड़ रहे संयुक्त परिवार के रेशे
क्षणिक सुख में अपना रहे एकल परिवार के पैसे
पर याद रखना तू साखी ज़माने में ये बात कैसे
दिखावे से नहीं मिटते है, पेट की भूख के रेशे
जो जीते है, दिखावे की जिंदगी यहां जैसे-तैसे
वो रोते है, भरे सावन में बनकर सूखे पत्ते जैसे
जो सहते है ,हकीकत के शूल के रोज यहाँ रेशे
वो बनते है, हमेशा खिलते-महकते गुलाब जैसे