ऐसा ही है दुनिया का दस्तूर
ऐसा ही है दुनिया का दस्तूर
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बीमार देह शय्या पर पड़ी थी, आँखों में अश्क़ों की नमी थी,
शब्द मौन व्रत ले चुके थे किंतु साँसें चल रही थी,
सब कुछ वह जान रही थी सभी को पहचान रही थी,
किंतु सभी ने समझा कि वह सब कुछ भूल रही थी।
तभी कानों में आवाज़ यह आई अभी कितना समय लगेगा,
कानों को यह शब्द शूल की तरह भेद रहे थे,
क्या करूँ मजबूर हूँ, यदि शक्ति होती तो
यूँ शून्य में ना पड़ी होती।
या स्वयं ही स्वयं को ख़त्म कर देती,
बेवजह किसी के वक़्त को यूँ ज़ाया ना करती,
किंतु चाह कर भी मैं ऐसा कर ना पाऊँगी,
जब बुलावा आएगा तब ही तो जाऊँगी।
हमदर्दी है मेरी,
lass="ql-align-center">सबका अनमोल वक़्त नष्ट हो रहा है,
सब्र करो मेरा दिल भी धीरे-धीरे सो रहा है।
मोक्ष मिलेगा मुझे तब ही
जब मैं आज़ाद तुम्हें कर पाऊँगी,
बह रहे हैं जो अश्क़ मेरे उसमें कुछ पीड़ा
मेरे तन की है और कुछ पीड़ा इस मन की है।
दस्तक देने से पूर्व ही खुल जाते थे जो द्वार,
टकटकी लगाकर देखते थे जो राह,
वही नज़रें मेरे प्रस्थान के लिए हैं बेक़रार,
नहीं दोष किसी का यह दुनिया का है मायाजाल।
ऊगते सूरज को है प्रणाम और ढलते सूरज को राम-राम,
नहीं कोई शिकवा किसी से नहीं किसी का कोई कसूर,
ऐसा ही है जीवन का नाता ऐसा ही है दुनिया का दस्तूर।